यह जीवन ही ईश्वर का आशीर्वाद है*
यह एक सुखद आश्चर्य है कि उस वर्ष दीपावली का पावन पर्व और बहाई धर्म के संस्थापक बहाउल्लाह का जन्मदिन एक ही तारीख 12 नवंबर को पड़ा। उन्होंने दीपावली की ही तरह मानव जीवन के जगमग प्रकाशित होने की आकांक्षा की थी। बहाउल्लाह ने लिखा है , ‘ प्रत्येक प्रभात को बीती संध्या से अधिक उत्तम बनाओ। ईश्वर मानव के लिए अपने आशीर्वादों का खजाना मुट्ठी खोल कर लुटाता है , ताकि मानव उसे हर पल लूट सके। लेकिन यह एक ऐसा खजाना है , जिसको पाकर मानव कभी सन्तुष्ट नहीं होता , उसकी तृष्णा बढ़ती ही जाती है। यह तृष्णा तभी पूरी हो सकती है , जब वह प्रभु के प्रेम में मग्न रहते हुए अपना जीवन यापन करना सीख ले। हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि प्रभु ने हमें अपने आशीर्वाद स्वरूप इस संसार में भेजा। उसने हमें सुंदर शरीर रूपी एक ऐसा भवन दिया , जिसमें स्थित आत्मा रूपी मंदिर में उसने अपना निवास बनाया। उस मंदिर को सजाने-संवारने के लिए मनुष्य को सोचने-समझने की शक्ति दी , ताकि जहाँ तक संभव हो सके , मनुष्य स्वयं को विषय-वासनाओं से दूर रखते हुए , अहंकार से मुक्त रहते हुए प्रभु का स्मरण कर सके। गाँधी इसीलिए भजते थे , ‘ सबको सन्मति दे भगवान्! ‘ वह सन्मति यही तो है। ईश्वरीय आशीर्वाद रूपी फल का उपभोग करने के लिए मानव को सबसे पहले प्रभु को धन्यवाद देना चाहिए , जिसने हमारे प्रति अपने प्रेम के कारण ही हमें इस संसार में भेजा और इस जीवन के लिए आवश्यक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करवाईं। इसके साथ ही उसने हमें इस जीवन को भोग सकने की क्षमता दी। हम इस जीवन के प्रत्येक पल के रूप में मिले आशीर्वाद का फल तो खाना चाहते हैं , पर यह नहीं समझते कि फल हमेशा झुकती डाली पर ही लगते हैं। इसलिए हम सभी को अहंकार से नहीं , नम्र रहकर जीवन गुजारना होगा। अत्याचार , स्वार्थ , बल प्रयोग , दूसरों के अधिकारों को छीनने की कोशिश जैसे दोष इस ईश्वरीय आशीर्वाद की सुंदरता को नष्ट कर देते हैं। हमें इस अज्ञान और अंधकार से मुक्त होकर आदर्श गुणों और आध्यात्मिक विशेषताओं के साथ दयालु भावनाओं का उद्गम बनकर जीना सीखना होगा। ऐसे ही जीवन के लिए बहाई लेखनी में कहा गया है , ‘ हम एक दूसरे से ऐसा व्यवहार करें जैसे भिन्न-भिन्न देहों में एक ही आत्मा हो , क्योंकि जितना हम आपस में एक-दूसरे से प्यार करेंगे , उतना ही अधिक हम ईश्वर के समीप पहुँचेंगे। ‘ यही बात तो मध्यकाल में हमारे संत कवि तुलसीदास ने भी अपनी इस चौपाई में कही है। *परहित सरिस धर्म नहीं भाई*।
*पर पीड़ा सम नहिं अधिमाई*। ‘
जीवन के रूप में मिले इस आशीर्वाद का महत्व तभी है जब हम अपनी आवश्यकताओं से पहले देखें कि कहीं हमारा पड़ोसी भूखा तो नहीं है , कहीं कोई असहाय तो नहीं महसूस कर रहा है , किसी दुर्बल को आश्रय की जरूरत तो नहीं है। हम न्याय , ईमानदारी और वफादारी के गहनों से स्वयं को अलंकृत करें , तभी ईश्वरीय आशीर्वादों का प्रवाह हम तक बना रहेगा। ये आशीर्वाद ऐसे प्राप्त होंगे जैसे गंगा , गंगोत्री से समुद्र की ओर अपने आप स्वाभाविक गति से जाती है। परोपकार के कार्यों के लिए ही कुरान में कहा गया है कि ‘ सचमुच अल्लाह उन्हीं से प्यार करता है जो दूसरों के साथ नेकी करते हैं। ‘ कई बार ऐसा भी होता है कि हम शुभ कर्म करते हैं , परोपकारमय जीवन जीते हैं , पर ईश्वरीय आशीर्वाद हम तक उस तरह नहीं आते , जिस तरह की हमें अभिलाषा होती है। इसके लिए हमें स्वयं अपने भीतर झांकना होगा कि कहीं हम से किसी के प्रति कुछ अशुभ तो नहीं हुआ ? अनजाने में भी कुछ हुआ हो तो प्रभु से प्रार्थना करनी होगी। लेकिन साथ ही , ईश्वरीय आशीर्वाद से जो भी प्राप्त हो , उसके प्रति सन्तोष और कृतज्ञता की भावना रखनी चाहिए और इस कथन में विश्वास करना चाहिए कि …
*सीता राम, सीताराम, सीताराम कहिए*..
*जाहि विधि राखे राम,ताहि विधि रहिये*…
प्रभु की इच्छा के प्रति सन्तुष्ट रहने के विषय में बहाई दर्शन में लिखा है : हे चेतना के पुत्र! मुझसे वह न मांग जिसे हम तेरे लिए नहीं चाहते। तेरे हित में हमने जो उपलब्ध कराया है , उस पर सन्तोष कर , एकमात्र यही तेरे लिए लाभदायक होगा…..🙏🙏🙏🙏🙏
अंत प्रभु कहते है….
*तू करता वही है जो तू चाहता है*
*ओर होता वही है जो में चाहता हु*
अतः
*तू कर वही जो में चाहता हूँ*
*फिर होगा वही जो तू चाहेगा*
कहने का तात्पर्य यह है के… है मानव जो तू चाहता है वो होगा किन्तु मेरे बताए मार्ग पर चलेगा तब….
अर्थात प्रभु की कृपा ओर आशीर्वाद के बगैर कुछ भी संभव नही है……सब का मंगल हो
जीवन दर्शन की बहोत अछि अभिव्यक्ती।