सर्वत्र मौन ही तो है

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गुरमीत सिंह

आज तो उनका मौन व्रत है,२४ घंटे अब वो किसी से नहीं मिलेंगे, सिर्फ जरूरी निर्देश इशारों में ही देंगे प्रति माह वो दो बार मौन रहने का संकल्प लिए हैं, उनसे पूछा गया आप ऐसा क्यों करते हैं ? उन्होंने बताया कि, वो आत्म साक्षात्कार कर रहे हैं, और वो जान गए हैं कि, वो एक महान चिन्तक हैं तथा समाज को सुधारने का मार्गदर्शन देने ही प्रकट हुए हैं मौन व्रत में वो किसी से बात नहीं करते हैं व व्रत खोलने के बाद भक्तों को प्रवचन देते हैं, प्रेस कांफ्रेंस कर मौन व्रत की महिमा बताते हैं। किसी जिज्ञासु बंधू ने पूछ लिया कि, मौन की परिभाषा क्या है व कैसे पता चलता है कि,मौन को प्राप्त कर लिया है ? प्रश्न सुनते ही वो नाराज हो गये, अहंकार चोटिल हो गया| बोले तुम नहीं समझोगे, मौन व्रत में शब्द विलीन हो जाते हैं, यही मौन है|
आखिर मौन क्या है? कैसे मौन रहा जाए, मौन से स्वयं को कैसे जाना जा सकता है।क्या मात्र कुछ समय के लिए चुप रहना ही मौन है| मौन तो सर्व व्याप्त है अनाहत नाद के रूप में,आहत नाद अवश्य समय समय पर उत्पन्न होता रहता है,हमारी सर्व दिशाओं में,अगर कुछ है,तो मात्र मौन ही है,और हम उसी को खोजने का प्रयास कर रहे हैं|मौन का अर्थ नाद का अभाव तो कदापि नहीं है,जब हम स्वयं से साक्षात्कार की स्थिति में आ जाते हैं,तो वहीँ से निरपेक्ष मौन का प्रादुर्भाव होता है|जिव्हा से चुप रहना,कदापि मौन नहीं है|जब हम परमात्मा की दिव्य ध्वनि अर्थात अनाहत नाद का अनुभव प्रारंभ करते हैं,तभी मौन को धारण करने की स्थिति में आते हैं,बाहर कितना भी शोर हो,अनेक प्रकार की ध्वनियाँ आ रही हों,उनसे अविचलित होकर शांत अवस्था में अनाहत नाद का अनुभव करते हुए,परमानन्द ,उत्साह,उमंग,दिव्य प्रज्ञा का अनुभव हमें मौन के वास्तविक स्वरूप का बोध करता है|बाहर शोर और भीतर भोर,अर्थात प्रभातकाल की असीम शांति में जिसने जीना सीख लिया ,उसने जीवन के अर्थ को समझ लिया |गुरुबानी में लिखा है……”अनहता नाद बाजंत भेरी” अर्थात मंदिरों से निकल रही घंटे, शंख की ध्वनी मुझे अनहत नाद,परमात्मा की आवाज के और निकट ले जाती है| यही अवस्था यदि मन की हो जाए तो मन,स्वयं मन्दिर हो जाए,और मन ही सर्वव्याप्त मौन की स्थिति में आ जाए|
हम सब की पहचान अपने नाम, पद ,जीविका,रिश्तों,उपलब्धियों से है|जिस तरह आज पहचाने जाते हैं,क्या बचपन में भी यही परिचय था?निश्चित रूप से नहीं,तब आपकी पहचान किसी और रूप में थी| अर्थात आपका परिचय निरंतर उम्र के साथ बदलता जाता है| अब आप तो वही के हैं, बचपन से बुढ़ापे तक,तब आप हैं कौन? अब बात आती हे,अपने आप को कैसे जाने….? मौन रहना कितना सहायक है|ध्यान और मौन का क्या सम्बन्ध है| मौन ध्यान की पहली सीढ़ी है,मुख से मौन,मन से मौन,भावनाओं से मौन,ये सारे मौन एकीकृत ध्यान के ही घटक हैं,पारस्परिक सम्बंधित है|पर यह सब पढने में जितने आसान दिख रहा है,वैसा है नहीं| ये मन बड़ा पागल है,आपको मौन होने ही नहीं देता,मुख से भले ही मौन हो जाओ,विचारों का तूफ़ान कहाँ चैन लेने देता है,मन बेलगाम घोड़ा है,अपना अहंकार इसको और पोषित करता है,मन को नियन्त्रित करना है तो,पहले अहंकार और अपनी स्थापित की गई पहचान से मुक्ति पानी होगी| यह अहंकार ही मौन हो जाने में सबसे बड़ा प्रतिरोधक है,मैं ही कर्ता,मैं ही ताकत,यह भाव कभी मौन होने नहीं देगा| मुझे सब पता है,मुझे सब आता है,मैं सर्वज्ञानी हूँ,ऐसे लोग खुद को ही धोखा दे रहे हैं |याद रखना हैं कि,मन अलग है,और आप अलग,परन्तु अपने अंहकार ने हमें मन से अलग होने नहीं दिया ,जब मन ही कण्ट्रोल से बाहर तो फिर कैसा मौन|जबान का मौन तो झूठा मौन है,भ्रमित करता है|ऐसे में हमारा ध्यान करना भी एक नाटक मात्र है|बहुत से ज्ञानी कहते हैं, विचारो को रोको मत,केवल देखों,धीरे धीरे विचार आना बंद हो जाएँगे,लेकिन जब तक अहंकार,अनावश्यक इच्छाओं,वासनाओं का बंधन नहीं काटोगे ,विचारो के प्रवाह से मुक्ति नहीं मिलेगी| तब निरपेक्ष मौन की तो बात ही नहीं करनी चाहिए |
निरपेक्ष व समग्र मौन,हमें ध्यान के माध्यम से स्वयं से मिलाता है,मौन की साधना आत्मा को मन से अलग एक स्वतंत्र अनुभूति कराती है,हमें परमानन्द की स्थिति में ले जाती है,फिर किसी बाहरी हैप्पीनेस की जरूरत नहीं हैं|ये पाखंड,कर्मकांड कभी भी मन को आत्मा से पृथक होने की अनुभूति नहीं होने देंगे,जिस दिन मन अलग और आपकी रूह अलग,उसी दिन आप परमात्मा के अंश होने की दिव्यता को अनुभव कर लेंगे| आपकी मौन साधना सार्थक होने लगेगी,मुख से मौन,मन से मौन और भावों से मौन एक समावेशी व समग्र मौन की स्थिति में ले आएगी, जो कि,मौन हो जाने का वास्तविक अर्थ है|जब समग्र मौन को भी साध लिया तो ही सच्चे मुनि कहलाने की परिभाषा सार्थक होगी|
“तो आइये और अपने जीवन कर्तव्यों का पालन करते हुए अहंकार,वासनाओं,अनावश्यक इच्छाओं से मुक्त होकर,बाहर शोर व भीतर भोर की स्थिति में रहते हुए मौन को प्राप्त हों,व ध्यान साधना के माध्यम से स्वयं के साथ एन्जॉय करें”|
गुरमीत सिंह

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