मन को स्वस्थ्य रखना ही लक्ष्य होना चाहिए….गुरमीत सिंह

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गुरमीत सिंह

स्वास्थ्य का विषय ही अपने आप में इतना वृहद है कि, अनेक दशकों से कई स्वास्थ्य संस्थाएं, मेडिकल विशेषज्ञ, विद्वान, आचार्य, संत, शोधकर्ता, वैज्ञानिक इत्यादि के निरन्तर चिंतन तथा विभिन्न क्षेत्रों में उपचार का विकास करने के बाद भी, बीमारियों पर नियन्त्रण नहीं पा सके हैं। वर्तमान परिदृश्य ने हमारे स्वास्थ्य पर नियंत्रण की भूमिका को उजागर कर दिया है। आम व्यक्ति के लिए इच्छापूर्ति की दौड़ व प्राथमिकता  हेल्थ से ऊपर हो गई है। लोग चाह रहे हैं कि, कैसे भी सफलता मिल जाए, इसी प्रयत्न में जीवन गुजार रहे हैं। आज की स्थितियां मानव को प्रकृति की चेतावनी ही है कि, जीवन के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता, स्वास्थ्य रक्षा की है।

ज्यादा सुविधाएं जुटाने तथा आरामतलब जीवन के नित्य नए आविष्कार, मनुष्य की रोगों से लड़ने की क्षमता को निश्चय ही कम कर रहे हैं। एक तरफ आर्थिक प्रगति तथा आर्थिक क्रांति के चलते, विलासिता के अनगिनत संसाधन विकसित किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर विलासी जीवन के उपभोग से मनुष्य की आंतरिक शक्ति का क्षरण हो रहा हैl इस संदर्भ में देखा जाए तो, विलासिता के संसाधनों से सृजित वित्तीय प्रगति, मानव स्वास्थ्य की रक्षा के व्युतक्रमानुपाती है, अर्थात हमारे जीवनयापन के लिए बढ़ती हुई सुविधाएं, हमारे स्वास्थ्य को कमजोर कर रही हैं।

इसका एक पक्ष यह भी है कि, विलासिता से प्राप्त राजस्व हमें, बढ़ती हुई बीमारियों से संघर्ष पर खर्च करना पड़ रहा है। अब विचार का समय है कि, आर्थिक प्रगति बनाए रखते हुए, बीमारियों पर नियन्त्रण किस तरह किया जाए। विलासिता के वही साधन उत्पादित हों, जो जीवन को सुगम बनाने के साथ साथ शरीर को भी क्रियाशील रखें। वास्तव में हम सब अत्यंत आलसी हो गए हैं, जो कि जीवन की नैसर्गिक कार्यप्रणाली के प्रतिकूल है। अगर शरीर क्रियाशील नहीं रहेगा, तो शारीरिक अंग भी निष्क्रिय होते जाएंगे और तब रोगों से संघर्ष करने की क्षमता में कमी आना स्वाभाविक है।

यह भी आश्चर्यजनक है कि, शारीरिक गतिविधियां बढ़ाने के लिए, जिम जाना, सप्लीमेंट लेना तथा कई तरह के आधुनिक एक्सरसाइज करने के कृत्रिम साधन अपनाए जा रहे हैं, जबकि यह सब निशुल्क रोजमर्रा के कार्यों से सुलभ है। वर्तमान जीवनचर्या में श्रम का अभाव ही, बीमारियों का मुख्य कारण नहीं है। अधिकांश शारीरिक रोगों की उत्पत्ति का मुख्य कारक, मन है। जीवन में विलासिता को प्रश्रय देकर आलसी होना भी मन की देन है।

जो इस तथ्य को समझते हैं, वो आधुनिक साधनों को अपनाने के साथ साथ, मन पर नियंत्रण रख कर ऊर्जावान होकर शरीर को निरन्तर स्वाभाविक रूप से क्रियाशील रखते हैं। एक बात तो एकदम स्पष्ट है कि, स्वास्थ्य का विषय ज्ञान तथा विवेक से भी संबंधित है। अपनी दिनचर्या को अपनाने का दायित्व व्यक्ति का स्वयं का है। हमारी सामाजिक तथा आर्थिक संरचना व बाजार की ताकतें तो, उनके आर्थिक हितों के अनुरूप ही गतिमान रहती हैं, परंतु उपभोग करने वाले को भी उचित निर्णय लेना समीचीन है। अत: मन की भूमिका स्वास्थ्य के संधारण में अत्यंत महत्वपूर्ण है।

शरीर को दांव पर लगा कर विलासिता के अनावश्यक साधन अर्जित करने को ही, हम अपनी सफलता मानते हैं।

आदिकाल से तथा वर्तमान के समस्त शोध, अन्वेषण, सिद्धांत यह स्पष्ट रूप से मानते हैं कि, मानसिक भावनाओं का असंतुलन, हारमोन तथा रसायनों की प्रकृति तथा मात्रा के लिए जिम्मेदार होती है और यही रसायन शरीर की कार्यक्षमता तथा प्रणाली का निर्धारण करते हैं। इससे स्पष्ट है कि मानसिक स्थिति तथा मानसिक स्वास्थ्य ही मुख्यतः समग्र स्वास्थ्य का आधार है। बाहरी विषाणुओं के आक्रमण के सक्षम प्रतिरोध के लिए भी आंतरिक प्रणाली की दक्षता ही काम आती है।

दूषित मानसिक स्वास्थ्य न केवल अंगों को प्रभावित करता है, अपितु अवचेतन को भी इस कदर प्रभावित करता है कि, जीवन के संघर्ष में व्यक्ति अपनी ऊर्जा तथा आत्मविश्वास को खोकर आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम उठा रहा है। वर्तमान में इस विषय पर भी चर्चाएं तथा बहस जारी है। अत्यधिक महत्वकांक्षाओं, अप्राप्य लक्ष्यों का निर्धारण, अपरिमित वासनाएं, जिस्मानी आकर्षण जिसको प्यार कहते हैं, में असफल हो जाना, इत्यादि कुछ ऐसे तथ्य हैं, जिन्होंने युवाओं को मानसिक रूप से बीमार बना दिया है।

परिवार तथा समाज के द्वारा अत्यधिक व्यक्तिगत अपेक्षाएं अथवा उपेक्षित व्यवहार भी एक मुख्य कारण है। अर्थात मानसिक असंतुलन उत्पन्न करने में सबका ही योगदान है। पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षणिक व जीविका के परिवेश मुख्य कारक हैं, जो समग्र स्वास्थ्य के सिद्धांत को निर्धारित कर सकते हैं। आज की स्थिति में, एकदम कोई आमूल चूल परिवर्तन किया जाना संभव नहीं है, परंतु जन जागरूकता को अभियान स्तर पर चलाने की आवश्यकता है।

वर्तमान परिदृश्य ने, अवश्य आम समझदार नागरिकों को सचेत कर दिया है। शासकीय स्तर पर भी अच्छे प्रयास तथा नवाचार किए जा रहे हैं, परंतु वक्त की नजाकत समझते हुए, अपनाना तो हमीं को है। मनोविज्ञान का विषय जो कि, समग्र स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसको कनिष्ठ स्तर से ही चरणबद्घ रूप से अध्ययन में सम्मिलित करना उपयोगी होगा। शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में मनोविज्ञान के विषयों को परोक्ष रूप से, इस प्रकार रखना होगा कि, यह विषय विद्यार्थी को उसकी क्षमताओं के आकलन, लक्ष्यों के निर्धारण तथा आत्मविश्वास को बढ़ाने में लाभकारी हो।

शिक्षकों को भी इस विषय पर पर्याप्त प्रशिक्षण तथा रिफ्रेशर कोर्स अनिवार्य किए जाने की आवश्यकता है। शारीरिक स्वास्थ्य तथा मानसिक स्वास्थ्य से संबंधी विषय, नैतिक आत्मबल, शिक्षक पालक मंच की निरन्तर चर्चाएं इस समय वक़्त की मांग है। केवल गणित, साइंस, आर्ट्स के परिणाम और प्रदर्शन केन्द्रित चर्चा व निर्देशों के ऊपर स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना मुख्य लक्ष्य निर्धारित करना होगा।

स्वास्थ्य रक्षा की प्राचीन विधाएं, योगसूत्र, ध्यान, व्यायाम तथा घरेलू कामकाज में श्रम को अपनाने तथा जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लेना, परम आवश्यक है। अभी भी नहीं चेते, तो प्रकृति की चेतावनी को नजर अंदाज करने का अभी तो ट्रेलर ही हम सबके सामने है। पूरी फिल्म कैसी होगी, ये अंदाजा लगाना कठिन नहीं होगा। मन को दृढ़ करने के लिए मेडिटेशन से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। प्राणायाम तथा योगासन अब जीवन का हिस्सा बन जाए, इस दिशा में सबको आगे आना है। इसकी अनिवार्यता के वैधानिक प्रावधान भी लाभकारी होगें।

ध्यान एक ऐसा उपहार है, जिसको यदि उचित रूप से कर सकें तो, असीम मानसिक शांति, आत्मविश्वास, बेशर्त प्रेम की प्राप्ति के साथ साथ, दिव्यता की अनंत जीवन ऊर्जा का संचार भी उपलब्ध होता है। यह सब स्वास्थ्य की रक्षा के खजाने की तरह है, जिसमें कोई व्यय नहीं हैं, परंतु लाभ अनमोल व अनंत हैं। तो आइए हम बढ़ चलें इस निशुल्क व अमूल्य धरोहर को जीवन में उतारने के लिए, जो उत्तम स्वास्थ्य के संबल के साथ-साथ वर्तमान परिस्थितियों से संघर्ष की असीम ऊर्जा प्रदान करेगा।

गुरमीत सिंह…

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