
वर्तमान परिदृश्य में, सजग और सतर्क रहने हेतु,विभिन्न माध्यमों से निरंतर संदेश प्रसारित किए जा रहे हैं। आज जो परिस्थितियां मानव जीवन के समक्ष हैं,उनका सामना करने के लिए मानसिक मजबूती रखते हुए,सजगता के साथ सामना किए जाने की आवश्यकता है। हालात ठीक वैसे ही हैं,जैसे युद्धकाल में सैनिकों तथा रणनीति के क्रियान्वयन करने वालों के सामने होते है। चौबीसों घण्टे चौकन्ने रहते हुए, निर्देशों तथा रणनीति को अमल में लाना अनिवार्य होता है।हमे सर्वाधिक आवश्यकता,सजगता के साथ निर्धारित प्रोटोकाल के पालन तथा सकारात्मक रहने की है।
अपने चारों और नजर डालें, सकारात्मक दृष्टिकोण के स्थान पर दुस्साहस तथा भय का माहोल दिखता है। लोग इतने अधिक साहसी हो गए है कि,वे अतिआत्मविश्वास का प्रदर्शन करते हुए साहस की सीमा को लांघ कर दुस्साहस का परिचय दे रहे हैं और अपने साथ साथ समाज के लिए भी खतरा बन बैठे हैं। संक्रामकता व्यक्ति का साहस नहीं देखती,जो भी सामने आता है,उसको शिकार बनाती है,यदि कुछ प्रतिशत लोग अपनी मजबूत इम्यूनिटी से बच जाते हैं,तो इसका अर्थ ये नहीं कि, वे अपने आस पास के लोगों को संक्रमित करने लगें।यह तो मूर्खतापूर्ण साहस का परिचायक है,जो पूरे समाज को हानि पहुंचा रहा है।
दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा है,जो सजग रहने के स्थान पर बुरी तरह से भयभीत है,और मानसिक मजबूती के अभाव में,निराशा तथा अवसाद की स्थिति में आ गया । डर की यह भावना,भी इम्यूनिटी को कमजोर कर रही है, फलस्वरूप अनचाहे ही,इस आसन्न संकट का मुकाबला करने में लोग अपने को असहाय पा रहे हैं।इन स्थितियों में असुरक्षा की भावना ने मानसिक बैचैनी तथा नकारत्मक चिंतन की स्थिति ला दी है।
इन दुर्गम परिस्थितियों में भी कुछ लोग ऐसे जरूर हैं,जो सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ,समर्पित होकर सेवा भावना से पूर्ण जज्बे के साथ मानवता की सेवा कर रहे हैं। इस जंग में उनकी सेवा तथा सजगता सराहनीय है।यह एक आदर्श मानसिक स्थिति है,जो अनुकरणीय होनी चाहिए। सकारात्मक दृष्टिकोण तथा सजगता का जो यह भाव है, यह सबके साथ क्यों नहीं हो पाता है।इसके मूल कारणों की विवेचना एक जटिल कार्य है,कोई एक कॉमन फॉर्मूला सब पर लागू नहीं किया जा सकता है। अवचेतन में सहेजी धारणाओं के अनुरूप ही व्यवहार परिलक्षित होता है।यह एक गूढ़ मनोवैज्ञानिक विषय है,तथा जितनी जटिलता के साथ इसका निराकरण करेंगे,उतनी जटिलता बढ़ती जाएगी।
वास्तव में मनुष्य के अंतर्मन में क्या संधारित है,इसकी जानकारी उसको स्वयं नहीं होती है।मनोविज्ञान को समझने वाले,सामने वाले के क्रियाकलाप, भाव तथा प्रतिक्रिया को देख कर कुछ हद तक व्यक्तित्व में छिपी जटिलता को समझ लेते हैं,परंतु सामने वाले का मन यह कमियां अथवा जटिलता को समझने तथा स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता। तो फिर ऐसा क्या किया जाए कि,व्यक्ति को उसकी कमजोरियां बताई भी न जाएं,और वह उसको स्वयं ही आकलन कर ले।इसका सरल उपाय आई. ओ.आई. सी. के द्वारा अपने स्ववलोकन तथा आत्मनिरीक्षण के विभिन्न सत्रों में उपयोग में लाया जा रहा है।वस्तुत: मन यदि स्वयं ही अपनी मानसिक कठिनाइयों को समझ ले, तो उसके समाधान का रास्ता भी मन निकाल लेता है,तो सर्वप्रथम अपनी भावनात्मक कमजोरियों तथा नकारत्मक दृष्टि कोण को आत्म स्वीकृति देना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
आत्मावलोकन तथा आत्मस्वेकृति को बहुत ही सरल तथा सहज भाव से करने के लिए आई. ओ.आई. सी.के द्वारा प्रत्येक माह आनलाइन निशुल्क सत्र आयोजित किए जा रहे हैं।इन सत्रों में भाग लेने वाले,प्रतिभागी के स्थान पर सहयात्री के रूप में उपस्थित होते हैं,जिनको अत्यंत सहज भाव से प्रश्नोत्तर के माध्यम तथा मौन संवाद के द्वारा संस्था के कुशल तथा अनुभवी प्रशिक्षकों के द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता है।चलते सत्र में ही,प्रतिभागी खुद को आयोजन का ही एक हिस्सा मान कर, सत्र को परिचालित करने में सहयोग करते है,तथा अपने अनुभव तथा कमजोरियों का आकलन कर सुधार का संकल्प लेते हैं। यह कार्यक्रम मात्र उपदेशात्मक न होकर तत्समय ही क्रियात्मक भी होते हैं,जिसके पॉजिटिव परिणाम प्रतिभागी स्वयं ही खुले मन से सत्रों में साझा करते हैं।
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Gurmeet Singh
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बहुत ही सारगर्भित एव आज के परिपेक्ष तो ठीक है वैसे भी हमे हमेशा सतर्क रहते हुए प्रभु के द्वारा दिये जाने वाले संकेतो का चिंतन मनन करते हुए आत्मसाथ करने की चेष्ठा ही,जीवन की सार्थकता होगी ..ऐसा में सोचता हूँ
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